जीतकर हार जाना भी है जिन्दगी
प्यार अनुरूप पाना भी है जिन्दगी
दौर कठिनाइयों का भले आ पड़े
हर्ष पूर्वक निभाना भी है जिन्दगी//५१//
मातृ-छाया से होती प्रकट जिन्दगी
पितृ संयोग से ही निकट जिन्दगी
वेद भी कह रहा माँ - पिता देवता
मानते बीत जाती विकट जिन्दगी//५२//
पूर्वजों के लिए बेंट है जिन्दगी
जो समर्पित रहे भेंट है जिन्दगी
जिनकी सन्तान पूरा मनोरथ करे
बस उन्हीं के लिए मेट है जिन्दगी//५३//
पित्र है और दौहित्र है जिन्दगी
मोह लेता स्वयं चित्र है जिन्दगी
अपने अनुगंध से जो सुवासित करे
मधुरता घोल दे इत्र है जिन्दगी//५४//
प्रेम हो तो कठिन पथ चुने जिन्दगी
अन्यथा कार्य में फिर गुने जिन्दगी
योग संयोग का कुछ भी कहना नहीं
बस विरह की सुमिरनी धुने जिन्दगी//५५//
अनवरत कर रही है पहल जिन्दगी
प्रेयशी की सुरति में महल जिन्दगी
ध्यान पल के लिए भंग होता नहीं
बन्द पुस्तक-सी रखी रहल जिन्दगी//५६//
मनुजता ही सही अस्त्र है जिन्दगी
जो समेटे स्वयं वस्त्र है जिन्दगी
भौंह की धनुष पर पलक की बाण से
बेध दे जो वही शस्त्र है जिन्दगी//५७//
प्रेम परिपूर्ण पूजा है जिन्दगी
प्रवेश होता नहीं दूजा है जिन्दगी
अपनी सौरभ छटा घोलती सर्वदा
पुष्प - प्रस्फुरित चूजा है जिन्दगी//५८//
प्रकृति का मूल उपहार है जिन्दगी
जीव की ही तो अधिकार है जिन्दगी
दोष वा दोष के कारणों को सकल
कर दे निर्मूल प्रतिकार है जिन्दगी//५९//
प्रेम ही तो मधुर मंत्र है जिन्दगी
सभ्य वैशिष्ट्य का तंत्र है जिन्दगी
ज्ञान -अज्ञान नित प्रति प्रकट हो रहा
रचयिता का अतुल यंत्र है जिन्दगी//६०//
भूलकर याद आना भी है जिन्दगी
याद आकर भुलाना भी है जिन्दगी
उर के डोले में बैठा उसे प्रेम में से
पेंग भरकर झुलाना भी है जिन्दगी//६१//
सुन रही कितनी बकवास है जिन्दगी
हो गयी जैसे उपहास है जिन्दगी
मुस्कुरा दे कोई एक क्षण के लिए
कर रही हास परिहास है जिन्दगी//६२//
गीदड़ों की तरह है हुआं जिन्दगी
विष विभूषित हुई है धुआं जिन्दगी
गिर पड़ेगी स्वयं बोध होता नहीं
खोदती दूसरों को कुआं जिन्दगी//६३//
चित लगा खेलती है जुआ जिन्दगी
दाँव पर सब लगा उड़ भुआ जिन्दगी
फिरती निर्लज्ज बन हाट में इस तरह
आज तक जैसे कुछ न हुआ जिन्दगी//६४//
कष्ट देती किसी की कमी जिन्दगी
नेत्र में अश्रुओं से नमी जिन्दगी
वेदना में, विरह की तपिस में कहीं
सूखकर होती जैसे ममी जिन्दगी//६५//
शोक - संताप में ही चुकी जिन्दगी
एक चिर आश में ही रुकी जिन्दगी
अपनेपन की मधुर माधुरी में उलझ
आत्मगौरव विसर कर झुकी जिन्दगी//६६//
मोह के फाँस में फाँसती जिन्दगी
पग नहीं उठ रहे हाँफती जिन्दगी
पास आये बुढ़ापा सिथिल इन्द्रियाँ
अस्थमा रोग से खाँसती जिन्दगी//६७//
आज काँटों भरी डग बनी जिन्दगी
बस निजी स्वार्थ में ठग बनी जिन्दगी
चन्द दौलत ही आयी बटुए में क्या
नभ में उड़ता हुआ खग बनी जिन्दगी//६८//
गिरती उठती फिसलती कहीं जिन्दगी
तेल में भी उबलती कहीं जिन्दगी
पाँव में ठोकरों के लगे ही बिना
क्या सही में सँभलती कहीं जिन्दगी६९//
काट लेती फटे हाल में जिन्दगी
सुख वशा हो कहीं पाल में जिन्दगी
नित्य उन्नति कहूँ कि क्षरण हो रहा
जा रही काल के गाल में जिन्दगी//७०//
वश गयी है कहीं लाल में जिन्दगी
दीखती अश्व के नाल में जिन्दगी
मुक्ति के अनवरत अनगिनत कर जतन
फँस गयी कैसे जंजाल में जिन्दगी//७१//
बोलने के लिए मंच है जिन्दगी
देखने पर दिखे टंच है जिन्दगी
हाल अपने को अपनी समझ आती है
सुन्यवस्थित नहीं रंच है जिन्दगी//७२//
मृत्यु के रूप में फिर रही जिन्दगी
नीचता हद नहीं गिर रही जिन्दगी
प्रश्न वाचक प्रतीकों से परिपूर्ण हो
गोलियों से स्वयं घिर रही जिन्दगी//७३//
कैसे सम्मान में फूलती जिन्दगी
हर्ष अतिरेक में झूलती जिन्दगी
यदि समा जाय उर में अहं भावना
अपना कर्तब्य तक भूलती जिन्दगी//७४//
लिख रही जिन्दगी, जिन्दगी, जिन्दगी
शिर झुका कर रही बन्दगी जिन्दगी
मेरा वातावरण स्वच्छ हो जाय तो
नाम मिट जाय यह गन्दगी जिन्दगी//७५//
गीत है साज श्रृंगार है जिन्दगी
मोतियों से गुँथा हार है जिन्दगी
पद की गरिमा अपनी समझ जाय जो
तार वीणा का झन्कार है जिन्दगी//७६//
देश की कर ही सुरक्षा जिन्दगी
दे रही नित्य प्रति परीक्षा जिन्दगी
हाथ पर हाथ रख सो रहे चैन से
अपनी करती नहीं रक्षा जिन्दगी//७७//
वायु के वेग - सी डोलती जिन्दगी
राज अन्तःकरण खोलती जिन्दगी
काट देती कहीं कतरनी की तरह
मधुभरा प्रेम रस घोलती जिन्दगी//७८//
साधना के लिए युक्ति है जिन्दगी
भोग को त्याग दे मुक्ति है जिन्दगी
कोई रच ले भले स्वर्ग की सीढ़ियाँ
है भरोसा नहीं उक्ति है जिन्दगी//७९//
अनिश्चितता भरा खेल है जिन्दगी
दो दिलों का मधुर मेल है जिन्दगी
सत्य विश्वास के भरोसे पर टिका
औषधी से बना तेल है जिन्दगी//८०//
निज किये की सजा पा रही जिन्दगी
जेल में रोटियाँ खा रही जिन्दगी
चोरी हिंसा अनाचार न छोड़कर
सुरक्षा पैंतरे ला रही जिन्दगी//८१//
कर लिया दुर्दिनों का चयन जिन्दगी
नींद आती नहीं अब नयन जिन्दगी
जब ग्रसित तीन तापों से हो जाय तो
कोशिशों से न पाये शयन जिन्दगी//८२//
तपस्या में कठिन तप रही जिन्दगी
नित्यप्रति शोध में खप रही जिन्दगी
श्वाँस से नाम का नित्य अभ्यास कर
इष्ट की प्राप्ति हो जप रही जिन्दगी//८३//
कहीं पर साज सज्जा बनी जिन्दगी
दीखती लोक लज्जा बनी जिन्दगी
अस्थियों में वशा माँस मेदा भरी
चल रही रक्त मज्जा बनी जिन्दगी//८४//
प्रेम है और सद्भाव है जिन्दगी
एक दूजे का आभाव है जिन्दगी
तत्व का ज्ञान परिपूर्ण हो जाय तो
ईश वा जीव समभाव है जिन्दगी//८५//
लौह से लौह नित थढ़ रही जिन्दगी
कैसी - कैसी कला गढ़ रही जिन्दगी
अपनी संभाव्य इच्छा सकल पूर्ण हो
खोज करती नई बढ़ रही जिन्दगी//८६//
शातिरों की तरह कढ़ रही जिन्दगी
अनवरत बेल सी बढ़ रही जिन्दगी
दोष अपना नहीं आज स्वीकारती
दूसरे पर सभी मढ़ रही जिन्दगी//८७//
भव्यता दे रही गोट है जिन्दगी
द्वेष उर में वशा खोट है जिन्दगी
मुझको लगता नहीं दूसरा दे रहा
पाती अपनों से ही चोट है जिन्दगी//८८//
अनुकरण के लिए नोट है जिन्दगी
दिव्यता से भरी कोट है जिन्दगी
पाने से ही मधुरता का आभास हो
पौष्टिकता भरी रोट है जिन्दगी//८९//
मोहती उर की अनुरक्ति है जिन्दगी
नवयुवा में भरी शक्ति है जिन्दगी
हर जगह आजकल विष वपन कर रही
क्या यही सत्य अभिव्यक्ति है जिन्दगी//९०//
बर्फ की पर्त में दब गयी जिन्दगी
जैसे - गतिरोध पर थम गयी जिन्दगी
आजतक द्वेष - विद्वेष में ही उलझ
ऐसा लगता नहीं कम गयी जिन्दगी//९१//
मधु बनी है कहीं तीखा जिन्दगी
अपना होता नहीं चीखा जिन्दगी
सम्बन्ध के जाँत में पिस रही
इस तरह से बहुत दीखा जिन्दगी//९२//
हो रही कलंकित टीका जिन्दगी
अपने सनमान को फीका जिन्दगी
रोग से ग्रस्त है मृत्यु होती नहीं
लटकती मध्य में छींका जिन्दगी//९३//
आग की लपट - सी भड़कती जिन्दगी
बनके बिजली-सी ही कड़कती जिन्दगी
दीख जाती लगन से लगी कार्य में
होके स्फूर्तिमय धड़कती जिन्दगी//९४//
टूट जाती वही न झुकी जिन्दगी
सफलता हाथ में न रुकी जिन्दगी
मनुजता के लिए मनुज ने आजतक
कितनी कीमत अदा कर चुकी जिन्दगी//९५//
लग रही है साख पर जिन्दगी
पल्लवित हो रही राख पर जिन्दगी
मन में विश्वास की आस जगती नहीं
जैसे - रखी हुई ताख पर जिन्दगी//९६//
घुड़सवारों की है काठी जिन्दगी
वृद्ध के हाथ की लाठी जिन्दगी
खुश रहे दूसरों को खुशी दे सके
बाँधती रैन -- दिन गाँठी जिन्दगी//९७//
खेती करता है जो माटी जिन्दगी
नित पसीना बहा काटी जिन्दगी
फिर भी दो जून की रोटी न मिले
सो रही है पकड़ पाटी जिन्दगी//९८//
कितनी सौन्दर्य - सी घाटी जिन्दगी
खिलाती पेटभर बाटी जिन्दगी
स्वर्ण निर्मित है जो मोतियों से जड़ी
लगती प्रतिरूप -- सी साटी जिन्दगी//९९//
मोरनी की मधुर चाल है जिन्दगी
लटकती रस भरी डाल है जिन्दगी
बज रही पंच सुर की मृदुल साज पर
गीत का बोल है ताल है जिन्दगी//१००//
फाँस लेती स्वयं जाल है जिन्दगी
गलने देती नहीं दाल है जिन्दगी
उर में सन्देह बनकर समा जाय तो
निकलती बाल की खाल है जिन्दगी//१०१//
युग्म का ही तो परिणाम है जिन्दगी
कर रही नाम, बदनाम है जिन्दगी
जिसने भी एक पग इष्ट के प्रति रखा
बस समझ लो वही दाम है जिन्दगी//१०२//
बिना गतिरोध के फिसरती जिन्दगी
ठण्ड़ परिवेश में सिसरती जिन्दगी
आधुनिकता की ऐसी चकाचौंध में
संस्कारों को भी विसरती जिन्दगी//१०३//
खोजती है कदाचित् पवन जिन्दगी
कर रही है सुखों का हवन जिन्दगी
वह भले ही स्वयं झुग्गियों रहे
फिर भी निर्माण करती भवन जिन्दगी//१०४//
फिर रही है कहीं मन्द मति जिन्दगी
चल रही रुक रही जैसे-यति जिन्दगी
दूसरे को गिरा देने की चाल में
करती निज कार्य का पूर्ण क्षय जिन्दगी//१०५//
शर्म से झुक रही जैसे - रति जिन्दगी
भर रही पूर्ण यौवन से गति जिन्दगी
पुष्प बनकर वही कोमल - सी कली
खोजती फिर रही आज पति जिन्दगी//१०६//
उत्सवों की लड़ी रोज है जिन्दगी
मृत्यु पर कर रह भोज है जिन्दगी
जितना सुलझाओ उतना उलझ जाती है
रहस्यों से भरी खोज है जिन्दगी//१०७//
भाव की भंगिमा बोलती जिन्दगी
नित खरा स्वर्ण ही तोलती जिन्दगी
मोह ले जो हृदय अपने दर्शन से ही
एेसी नक्कासियाँ रोलती जिन्दगी//१०८//
https://jaiprakashchaturvedi.blogspot.com/2017/09/blog-post_30.html
प्यार अनुरूप पाना भी है जिन्दगी
दौर कठिनाइयों का भले आ पड़े
हर्ष पूर्वक निभाना भी है जिन्दगी//५१//
मातृ-छाया से होती प्रकट जिन्दगी
पितृ संयोग से ही निकट जिन्दगी
वेद भी कह रहा माँ - पिता देवता
मानते बीत जाती विकट जिन्दगी//५२//
पूर्वजों के लिए बेंट है जिन्दगी
जो समर्पित रहे भेंट है जिन्दगी
जिनकी सन्तान पूरा मनोरथ करे
बस उन्हीं के लिए मेट है जिन्दगी//५३//
पित्र है और दौहित्र है जिन्दगी
मोह लेता स्वयं चित्र है जिन्दगी
अपने अनुगंध से जो सुवासित करे
मधुरता घोल दे इत्र है जिन्दगी//५४//
प्रेम हो तो कठिन पथ चुने जिन्दगी
अन्यथा कार्य में फिर गुने जिन्दगी
योग संयोग का कुछ भी कहना नहीं
बस विरह की सुमिरनी धुने जिन्दगी//५५//
अनवरत कर रही है पहल जिन्दगी
प्रेयशी की सुरति में महल जिन्दगी
ध्यान पल के लिए भंग होता नहीं
बन्द पुस्तक-सी रखी रहल जिन्दगी//५६//
मनुजता ही सही अस्त्र है जिन्दगी
जो समेटे स्वयं वस्त्र है जिन्दगी
भौंह की धनुष पर पलक की बाण से
बेध दे जो वही शस्त्र है जिन्दगी//५७//
प्रेम परिपूर्ण पूजा है जिन्दगी
प्रवेश होता नहीं दूजा है जिन्दगी
अपनी सौरभ छटा घोलती सर्वदा
पुष्प - प्रस्फुरित चूजा है जिन्दगी//५८//
प्रकृति का मूल उपहार है जिन्दगी
जीव की ही तो अधिकार है जिन्दगी
दोष वा दोष के कारणों को सकल
कर दे निर्मूल प्रतिकार है जिन्दगी//५९//
प्रेम ही तो मधुर मंत्र है जिन्दगी
सभ्य वैशिष्ट्य का तंत्र है जिन्दगी
ज्ञान -अज्ञान नित प्रति प्रकट हो रहा
रचयिता का अतुल यंत्र है जिन्दगी//६०//
भूलकर याद आना भी है जिन्दगी
याद आकर भुलाना भी है जिन्दगी
उर के डोले में बैठा उसे प्रेम में से
पेंग भरकर झुलाना भी है जिन्दगी//६१//
सुन रही कितनी बकवास है जिन्दगी
हो गयी जैसे उपहास है जिन्दगी
मुस्कुरा दे कोई एक क्षण के लिए
कर रही हास परिहास है जिन्दगी//६२//
गीदड़ों की तरह है हुआं जिन्दगी
विष विभूषित हुई है धुआं जिन्दगी
गिर पड़ेगी स्वयं बोध होता नहीं
खोदती दूसरों को कुआं जिन्दगी//६३//
चित लगा खेलती है जुआ जिन्दगी
दाँव पर सब लगा उड़ भुआ जिन्दगी
फिरती निर्लज्ज बन हाट में इस तरह
आज तक जैसे कुछ न हुआ जिन्दगी//६४//
कष्ट देती किसी की कमी जिन्दगी
नेत्र में अश्रुओं से नमी जिन्दगी
वेदना में, विरह की तपिस में कहीं
सूखकर होती जैसे ममी जिन्दगी//६५//
शोक - संताप में ही चुकी जिन्दगी
एक चिर आश में ही रुकी जिन्दगी
अपनेपन की मधुर माधुरी में उलझ
आत्मगौरव विसर कर झुकी जिन्दगी//६६//
मोह के फाँस में फाँसती जिन्दगी
पग नहीं उठ रहे हाँफती जिन्दगी
पास आये बुढ़ापा सिथिल इन्द्रियाँ
अस्थमा रोग से खाँसती जिन्दगी//६७//
आज काँटों भरी डग बनी जिन्दगी
बस निजी स्वार्थ में ठग बनी जिन्दगी
चन्द दौलत ही आयी बटुए में क्या
नभ में उड़ता हुआ खग बनी जिन्दगी//६८//
गिरती उठती फिसलती कहीं जिन्दगी
तेल में भी उबलती कहीं जिन्दगी
पाँव में ठोकरों के लगे ही बिना
क्या सही में सँभलती कहीं जिन्दगी६९//
काट लेती फटे हाल में जिन्दगी
सुख वशा हो कहीं पाल में जिन्दगी
नित्य उन्नति कहूँ कि क्षरण हो रहा
जा रही काल के गाल में जिन्दगी//७०//
वश गयी है कहीं लाल में जिन्दगी
दीखती अश्व के नाल में जिन्दगी
मुक्ति के अनवरत अनगिनत कर जतन
फँस गयी कैसे जंजाल में जिन्दगी//७१//
बोलने के लिए मंच है जिन्दगी
देखने पर दिखे टंच है जिन्दगी
हाल अपने को अपनी समझ आती है
सुन्यवस्थित नहीं रंच है जिन्दगी//७२//
मृत्यु के रूप में फिर रही जिन्दगी
नीचता हद नहीं गिर रही जिन्दगी
प्रश्न वाचक प्रतीकों से परिपूर्ण हो
गोलियों से स्वयं घिर रही जिन्दगी//७३//
कैसे सम्मान में फूलती जिन्दगी
हर्ष अतिरेक में झूलती जिन्दगी
यदि समा जाय उर में अहं भावना
अपना कर्तब्य तक भूलती जिन्दगी//७४//
लिख रही जिन्दगी, जिन्दगी, जिन्दगी
शिर झुका कर रही बन्दगी जिन्दगी
मेरा वातावरण स्वच्छ हो जाय तो
नाम मिट जाय यह गन्दगी जिन्दगी//७५//
गीत है साज श्रृंगार है जिन्दगी
मोतियों से गुँथा हार है जिन्दगी
पद की गरिमा अपनी समझ जाय जो
तार वीणा का झन्कार है जिन्दगी//७६//
देश की कर ही सुरक्षा जिन्दगी
दे रही नित्य प्रति परीक्षा जिन्दगी
हाथ पर हाथ रख सो रहे चैन से
अपनी करती नहीं रक्षा जिन्दगी//७७//
वायु के वेग - सी डोलती जिन्दगी
राज अन्तःकरण खोलती जिन्दगी
काट देती कहीं कतरनी की तरह
मधुभरा प्रेम रस घोलती जिन्दगी//७८//
साधना के लिए युक्ति है जिन्दगी
भोग को त्याग दे मुक्ति है जिन्दगी
कोई रच ले भले स्वर्ग की सीढ़ियाँ
है भरोसा नहीं उक्ति है जिन्दगी//७९//
अनिश्चितता भरा खेल है जिन्दगी
दो दिलों का मधुर मेल है जिन्दगी
सत्य विश्वास के भरोसे पर टिका
औषधी से बना तेल है जिन्दगी//८०//
निज किये की सजा पा रही जिन्दगी
जेल में रोटियाँ खा रही जिन्दगी
चोरी हिंसा अनाचार न छोड़कर
सुरक्षा पैंतरे ला रही जिन्दगी//८१//
कर लिया दुर्दिनों का चयन जिन्दगी
नींद आती नहीं अब नयन जिन्दगी
जब ग्रसित तीन तापों से हो जाय तो
कोशिशों से न पाये शयन जिन्दगी//८२//
तपस्या में कठिन तप रही जिन्दगी
नित्यप्रति शोध में खप रही जिन्दगी
श्वाँस से नाम का नित्य अभ्यास कर
इष्ट की प्राप्ति हो जप रही जिन्दगी//८३//
कहीं पर साज सज्जा बनी जिन्दगी
दीखती लोक लज्जा बनी जिन्दगी
अस्थियों में वशा माँस मेदा भरी
चल रही रक्त मज्जा बनी जिन्दगी//८४//
प्रेम है और सद्भाव है जिन्दगी
एक दूजे का आभाव है जिन्दगी
तत्व का ज्ञान परिपूर्ण हो जाय तो
ईश वा जीव समभाव है जिन्दगी//८५//
लौह से लौह नित थढ़ रही जिन्दगी
कैसी - कैसी कला गढ़ रही जिन्दगी
अपनी संभाव्य इच्छा सकल पूर्ण हो
खोज करती नई बढ़ रही जिन्दगी//८६//
शातिरों की तरह कढ़ रही जिन्दगी
अनवरत बेल सी बढ़ रही जिन्दगी
दोष अपना नहीं आज स्वीकारती
दूसरे पर सभी मढ़ रही जिन्दगी//८७//
भव्यता दे रही गोट है जिन्दगी
द्वेष उर में वशा खोट है जिन्दगी
मुझको लगता नहीं दूसरा दे रहा
पाती अपनों से ही चोट है जिन्दगी//८८//
अनुकरण के लिए नोट है जिन्दगी
दिव्यता से भरी कोट है जिन्दगी
पाने से ही मधुरता का आभास हो
पौष्टिकता भरी रोट है जिन्दगी//८९//
मोहती उर की अनुरक्ति है जिन्दगी
नवयुवा में भरी शक्ति है जिन्दगी
हर जगह आजकल विष वपन कर रही
क्या यही सत्य अभिव्यक्ति है जिन्दगी//९०//
बर्फ की पर्त में दब गयी जिन्दगी
जैसे - गतिरोध पर थम गयी जिन्दगी
आजतक द्वेष - विद्वेष में ही उलझ
ऐसा लगता नहीं कम गयी जिन्दगी//९१//
मधु बनी है कहीं तीखा जिन्दगी
अपना होता नहीं चीखा जिन्दगी
सम्बन्ध के जाँत में पिस रही
इस तरह से बहुत दीखा जिन्दगी//९२//
हो रही कलंकित टीका जिन्दगी
अपने सनमान को फीका जिन्दगी
रोग से ग्रस्त है मृत्यु होती नहीं
लटकती मध्य में छींका जिन्दगी//९३//
आग की लपट - सी भड़कती जिन्दगी
बनके बिजली-सी ही कड़कती जिन्दगी
दीख जाती लगन से लगी कार्य में
होके स्फूर्तिमय धड़कती जिन्दगी//९४//
टूट जाती वही न झुकी जिन्दगी
सफलता हाथ में न रुकी जिन्दगी
मनुजता के लिए मनुज ने आजतक
कितनी कीमत अदा कर चुकी जिन्दगी//९५//
लग रही है साख पर जिन्दगी
पल्लवित हो रही राख पर जिन्दगी
मन में विश्वास की आस जगती नहीं
जैसे - रखी हुई ताख पर जिन्दगी//९६//
घुड़सवारों की है काठी जिन्दगी
वृद्ध के हाथ की लाठी जिन्दगी
खुश रहे दूसरों को खुशी दे सके
बाँधती रैन -- दिन गाँठी जिन्दगी//९७//
खेती करता है जो माटी जिन्दगी
नित पसीना बहा काटी जिन्दगी
फिर भी दो जून की रोटी न मिले
सो रही है पकड़ पाटी जिन्दगी//९८//
कितनी सौन्दर्य - सी घाटी जिन्दगी
खिलाती पेटभर बाटी जिन्दगी
स्वर्ण निर्मित है जो मोतियों से जड़ी
लगती प्रतिरूप -- सी साटी जिन्दगी//९९//
मोरनी की मधुर चाल है जिन्दगी
लटकती रस भरी डाल है जिन्दगी
बज रही पंच सुर की मृदुल साज पर
गीत का बोल है ताल है जिन्दगी//१००//
फाँस लेती स्वयं जाल है जिन्दगी
गलने देती नहीं दाल है जिन्दगी
उर में सन्देह बनकर समा जाय तो
निकलती बाल की खाल है जिन्दगी//१०१//
युग्म का ही तो परिणाम है जिन्दगी
कर रही नाम, बदनाम है जिन्दगी
जिसने भी एक पग इष्ट के प्रति रखा
बस समझ लो वही दाम है जिन्दगी//१०२//
बिना गतिरोध के फिसरती जिन्दगी
ठण्ड़ परिवेश में सिसरती जिन्दगी
आधुनिकता की ऐसी चकाचौंध में
संस्कारों को भी विसरती जिन्दगी//१०३//
खोजती है कदाचित् पवन जिन्दगी
कर रही है सुखों का हवन जिन्दगी
वह भले ही स्वयं झुग्गियों रहे
फिर भी निर्माण करती भवन जिन्दगी//१०४//
फिर रही है कहीं मन्द मति जिन्दगी
चल रही रुक रही जैसे-यति जिन्दगी
दूसरे को गिरा देने की चाल में
करती निज कार्य का पूर्ण क्षय जिन्दगी//१०५//
शर्म से झुक रही जैसे - रति जिन्दगी
भर रही पूर्ण यौवन से गति जिन्दगी
पुष्प बनकर वही कोमल - सी कली
खोजती फिर रही आज पति जिन्दगी//१०६//
उत्सवों की लड़ी रोज है जिन्दगी
मृत्यु पर कर रह भोज है जिन्दगी
जितना सुलझाओ उतना उलझ जाती है
रहस्यों से भरी खोज है जिन्दगी//१०७//
भाव की भंगिमा बोलती जिन्दगी
नित खरा स्वर्ण ही तोलती जिन्दगी
मोह ले जो हृदय अपने दर्शन से ही
एेसी नक्कासियाँ रोलती जिन्दगी//१०८//
https://jaiprakashchaturvedi.blogspot.com/2017/09/blog-post_30.html
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