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बुधवार, 4 अक्तूबर 2017

जिन्दगी--मुक्तक

जीतकर  हार  जाना भी  है  जिन्दगी
प्यार अनुरूप  पाना  भी है   जिन्दगी
दौर  कठिनाइयों  का  भले  आ   पड़े
हर्ष  पूर्वक  निभाना  भी  है  जिन्दगी//५१//

मातृ-छाया  से  होती  प्रकट  जिन्दगी
पितृ  संयोग  से   ही  निकट  जिन्दगी
वेद  भी  कह  रहा   माँ - पिता  देवता
मानते   बीत  जाती   विकट  जिन्दगी//५२//

पूर्वजों   के   लिए   बेंट   है   जिन्दगी
जो   समर्पित   रहे   भेंट   है  जिन्दगी
जिनकी  सन्तान   पूरा   मनोरथ  करे
बस  उन्हीं  के  लिए  मेट  है  जिन्दगी//५३//

पित्र  है   और   दौहित्र   है   जिन्दगी
मोह  लेता  स्वयं   चित्र   है   जिन्दगी
अपने  अनुगंध  से जो सुवासित  करे
मधुरता  घोल  दे   इत्र    है   जिन्दगी//५४//

प्रेम  हो  तो कठिन पथ चुने जिन्दगी
अन्यथा  कार्य  में  फिर गुने जिन्दगी
योग संयोग का कुछ भी कहना नहीं
बस विरह की सुमिरनी धुने जिन्दगी//५५//


अनवरत कर  रही  है पहल जिन्दगी
प्रेयशी की सुरति  में  महल जिन्दगी
ध्यान  पल  के  लिए भंग होता नहीं
बन्द पुस्तक-सी रखी रहल  जिन्दगी//५६//

मनुजता   ही  सही  अस्त्र है जिन्दगी
जो   समेटे   स्वयं   वस्त्र  है  जिन्दगी
भौंह की धनुष पर पलक की बाण से
बेध  दे   जो   वही   शस्त्र है जिन्दगी//५७//

प्रेम    परिपूर्ण   पूजा   है    जिन्दगी
प्रवेश  होता नहीं  दूजा   है  जिन्दगी
अपनी  सौरभ  छटा  घोलती  सर्वदा
पुष्प - प्रस्फुरित   चूजा   है  जिन्दगी//५८//

प्रकृति  का  मूल उपहार  है जिन्दगी
जीव की ही तो अधिकार है जिन्दगी
दोष वा दोष के  कारणों को  सकल
कर  दे निर्मूल  प्रतिकार  है जिन्दगी//५९//

प्रेम  ही  तो  मधुर  मंत्र  है   जिन्दगी
सभ्य वैशिष्ट्य  का  तंत्र  है  जिन्दगी
ज्ञान -अज्ञान नित प्रति प्रकट हो रहा
रचयिता  का अतुल  यंत्र  है जिन्दगी//६०//

भूलकर याद आना  भी  है  जिन्दगी
याद आकर भुलाना भी  है  जिन्दगी
उर के डोले में बैठा  उसे  प्रेम  में  से
पेंग भरकर झुलाना  भी  है जिन्दगी//६१//

सुन रही कितनी बकवास है जिन्दगी
हो  गयी  जैसे  उपहास   है  जिन्दगी
मुस्कुरा दे  कोई  एक  क्षण  के  लिए
कर  रही  हास  परिहास  है  जिन्दगी//६२//

गीदड़ों  की  तरह   है  हुआं  जिन्दगी
विष विभूषित हुई  है  धुआं  जिन्दगी
गिर  पड़ेगी   स्वयं   बोध  होता  नहीं
खोदती  दूसरों   को   कुआं  जिन्दगी//६३//

चित लगा खेलती  है  जुआ  जिन्दगी
दाँव पर सब लगा उड़ भुआ  जिन्दगी
फिरती निर्लज्ज बन हाट में इस तरह
आज तक जैसे कुछ न हुआ जिन्दगी//६४//

कष्ट  देती  किसी  की  कमी  जिन्दगी
नेत्र   में   अश्रुओं   से   नमी  जिन्दगी
वेदना  में,  विरह  की  तपिस  में  कहीं
सूखकर   होती   जैसे   ममी  जिन्दगी//६५//

शोक - संताप  में  ही  चुकी  जिन्दगी
एक चिर आश  में  ही  रुकी जिन्दगी
अपनेपन की मधुर माधुरी  में  उलझ
आत्मगौरव विसर कर झुकी जिन्दगी//६६//

मोह  के  फाँस  में  फाँसती  जिन्दगी
पग  नहीं  उठ  रहे  हाँफती  जिन्दगी
पास आये  बुढ़ापा  सिथिल  इन्द्रियाँ
अस्थमा  रोग   से  खाँसती  जिन्दगी//६७//

आज काँटों भरी  डग  बनी  जिन्दगी
बस निजी स्वार्थ में ठग बनी जिन्दगी
चन्द दौलत ही  आयी  बटुए  में  क्या
नभ में उड़ता हुआ खग बनी जिन्दगी//६८//

गिरती उठती फिसलती कहीं जिन्दगी
तेल  में  भी  उबलती   कहीं  जिन्दगी
पाँव   में   ठोकरों   के  लगे  ही  बिना
क्या सही में  सँभलती  कहीं  जिन्दगी६९//

काट   लेती   फटे   हाल  में  जिन्दगी
सुख वशा हो कहीं  पाल  में  जिन्दगी
नित्य उन्नति कहूँ कि  क्षरण  हो  रहा
जा  रही  काल  के  गाल  में  जिन्दगी//७०//

वश गयी  है  कहीं  लाल   में   जिन्दगी
दीखती   अश्व   के  नाल   में   जिन्दगी
मुक्ति के अनवरत अनगिनत कर जतन
फँस   गयी  कैसे   जंजाल  में  जिन्दगी//७१//

बोलने   के   लिए   मंच   है   जिन्दगी
देखने   पर   दिखे   टंच   है   जिन्दगी
हाल अपने को अपनी समझ आती है
सुन्यवस्थित    नहीं   रंच   है  जिन्दगी//७२//

मृत्यु  के  रूप  में  फिर  रही  जिन्दगी
नीचता   हद  नहीं  गिर  रही  जिन्दगी
प्रश्न  वाचक  प्रतीकों  से  परिपूर्ण  हो
गोलियों  से  स्वयं  घिर  रही  जिन्दगी//७३//

कैसे   सम्मान   में   फूलती   जिन्दगी
हर्ष   अतिरेक   में   झूलती   जिन्दगी
यदि समा  जाय  उर  में  अहं  भावना
अपना कर्तब्य  तक  भूलती  जिन्दगी//७४//

लिख रही जिन्दगी, जिन्दगी, जिन्दगी
शिर झुका कर  रही  बन्दगी  जिन्दगी
मेरा  वातावरण  स्वच्छ  हो  जाय  तो
नाम मिट जाय  यह  गन्दगी  जिन्दगी//७५//

गीत   है  साज   श्रृंगार   है   जिन्दगी
मोतियों  से  गुँथा   हार   है   जिन्दगी
पद की गरिमा अपनी समझ जाय जो
तार  वीणा  का   झन्कार  है  जिन्दगी//७६//

देश   की   कर   ही   सुरक्षा  जिन्दगी
दे  रही  नित्य  प्रति   परीक्षा  जिन्दगी
हाथ  पर  हाथ  रख  सो  रहे  चैन  से
अपनी  करती   नहीं   रक्षा   जिन्दगी//७७//

वायु  के  वेग - सी  डोलती   जिन्दगी
राज  अन्तःकरण  खोलती   जिन्दगी
काट  देती  कहीं  कतरनी  की   तरह
मधुभरा   प्रेम  रस  घोलती  जिन्दगी//७८//

साधना  के  लिए  युक्ति   है  जिन्दगी
भोग  को  त्याग  दे  मुक्ति  है जिन्दगी
कोई रच  ले  भले  स्वर्ग  की  सीढ़ियाँ
है   भरोसा   नहीं  उक्ति  है    जिन्दगी//७९//

अनिश्चितता   भरा   खेल  है  जिन्दगी
दो  दिलों  का  मधुर  मेल  है  जिन्दगी
सत्य  विश्वास   के   भरोसे  पर  टिका
औषधी  से   बना   तेल   है   जिन्दगी//८०//

निज किये  की  सजा पा रही जिन्दगी
जेल  में   रोटियाँ   खा   रही  जिन्दगी
चोरी   हिंसा   अनाचार   न   छोड़कर
सुरक्षा    पैंतरे    ला    रही    जिन्दगी//८१//

कर लिया दुर्दिनों  का  चयन  जिन्दगी
नींद आती  नहीं  अब  नयन  जिन्दगी
जब ग्रसित तीन  तापों  से हो जाय तो
कोशिशों  से  न  पाये  शयन  जिन्दगी//८२//

तपस्या  में  कठिन  तप  रही  जिन्दगी
नित्यप्रति शोध  में  खप  रही  जिन्दगी
श्वाँस से  नाम  का  नित्य अभ्यास कर
इष्ट  की  प्राप्ति  हो  जप  रही जिन्दगी//८३//

कहीं पर  साज  सज्जा  बनी  जिन्दगी
दीखती   लोक  लज्जा  बनी  जिन्दगी
अस्थियों   में   वशा  माँस  मेदा   भरी
चल रही  रक्त   मज्जा   बनी  जिन्दगी//८४//

प्रेम    है   और   सद्भाव   है   जिन्दगी
एक  दूजे  का   आभाव   है   जिन्दगी
तत्व  का  ज्ञान  परिपूर्ण  हो  जाय  तो
ईश  वा  जीव  समभाव   है   जिन्दगी//८५//

लौह से लौह  नित  थढ़  रही  जिन्दगी
कैसी - कैसी कला  गढ़  रही  जिन्दगी
अपनी संभाव्य इच्छा सकल  पूर्ण  हो
खोज  करती  नई   बढ़  रही  जिन्दगी//८६//

शातिरों  की  तरह  कढ़  रही  जिन्दगी
अनवरत  बेल  सी  बढ़   रही  जिन्दगी
दोष   अपना   नहीं   आज  स्वीकारती
दूसरे   पर   सभी   मढ़   रही  जिन्दगी//८७//

भव्यता   दे   रही   गोट   है    जिन्दगी
द्वेष  उर  में   वशा   खोट  है   जिन्दगी
मुझको   लगता   नहीं   दूसरा  दे  रहा
पाती  अपनों से  ही  चोट  है  जिन्दगी//८८//

अनुकरण  के  लिए  नोट  है  जिन्दगी
दिव्यता  से  भरी   कोट   है   जिन्दगी
पाने से  ही  मधुरता  का  आभास  हो
पौष्टिकता   भरी    रोट    है   जिन्दगी//८९//

मोहती  उर  की  अनुरक्ति  है  जिन्दगी
नवयुवा   में   भरी   शक्ति  है  जिन्दगी
हर जगह आजकल विष वपन कर रही
क्या यही सत्य अभिव्यक्ति है  जिन्दगी//९०//

बर्फ  की  पर्त  में  दब   गयी   जिन्दगी
जैसे - गतिरोध पर थम  गयी  जिन्दगी
आजतक  द्वेष - विद्वेष   में  ही  उलझ
ऐसा लगता  नहीं  कम  गयी  जिन्दगी//९१//

मधु   बनी   है   कहीं   तीखा  जिन्दगी
अपना   होता   नहीं   चीखा   जिन्दगी
सम्बन्ध   के    जाँत    में    पिस   रही
इस  तरह   से   बहुत   दीखा  जिन्दगी//९२//

हो   रही   कलंकित   टीका    जिन्दगी
अपने   सनमान   को  फीका  जिन्दगी
रोग  से   ग्रस्त   है   मृत्यु   होती   नहीं
लटकती   मध्य   में    छींका   जिन्दगी//९३//

आग की लपट - सी भड़कती  जिन्दगी
बनके बिजली-सी ही कड़कती जिन्दगी
दीख  जाती  लगन  से  लगी   कार्य   में
होके   स्फूर्तिमय    धड़कती    जिन्दगी//९४//

टूट   जाती  वही   न    झुकी   जिन्दगी
सफलता  हाथ में   न    रुकी   जिन्दगी
मनुजता  के  लिए  मनुज  ने  आजतक
कितनी  कीमत अदा कर चुकी जिन्दगी//९५//

लग    रही    है    साख    पर   जिन्दगी
पल्लवित   हो   रही  राख  पर  जिन्दगी
मन  में  विश्वास  की  आस  जगती नहीं
जैसे - रखी   हुई   ताख    पर   जिन्दगी//९६//

घुड़सवारों   की    है    काठी    जिन्दगी
वृद्ध    के    हाथ   की   लाठी   जिन्दगी
खुश   रहे   दूसरों   को   खुशी   दे  सके
बाँधती     रैन -- दिन    गाँठी    जिन्दगी//९७//

खेती   करता   है   जो   माटी   जिन्दगी
नित    पसीना    बहा   काटी    जिन्दगी
फिर   भी  दो  जून   की   रोटी  न  मिले
सो   रही    है   पकड़    पाटी   जिन्दगी//९८//

कितनी   सौन्दर्य - सी   घाटी   जिन्दगी
खिलाती      पेटभर    बाटी     जिन्दगी
स्वर्ण निर्मित  है  जो  मोतियों  से  जड़ी
लगती   प्रतिरूप -- सी  साटी  जिन्दगी//९९//

मोरनी   की   मधुर   चाल   है  जिन्दगी
लटकती  रस  भरी   डाल   है  जिन्दगी
बज  रही पंच  सुर  की  मृदुल साज पर
गीत   का   बोल   है  ताल  है  जिन्दगी//१००//

फाँस   लेती   स्वयं   जाल  है  जिन्दगी
गलने   देती    नहीं    दाल  है  जिन्दगी
उर  में  सन्देह  बनकर  समा  जाय  तो
निकलती   बाल   की खाल है जिन्दगी//१०१//

युग्म का  ही  तो  परिणाम  है  जिन्दगी
कर   रही   नाम,   बदनाम  है  जिन्दगी
जिसने  भी  एक  पग इष्ट के प्रति रखा
बस समझ  लो  वही  दाम  है  जिन्दगी//१०२//

बिना  गतिरोध  के  फिसरती  जिन्दगी
ठण्ड़  परिवेश   में  सिसरती   जिन्दगी
आधुनिकता  की   ऐसी  चकाचौंध  में
संस्कारों   को   भी  विसरती  जिन्दगी//१०३//

खोजती  है  कदाचित्  पवन  जिन्दगी
कर रही  है सुखों  का  हवन  जिन्दगी
वह   भले   ही   स्वयं    झुग्गियों   रहे
फिर भी निर्माण करती भवन जिन्दगी//१०४//

फिर रही  है  कहीं  मन्द  मति  जिन्दगी
चल रही रुक  रही  जैसे-यति   जिन्दगी
दूसरे   को   गिरा   देने   की   चाल   में
करती निज कार्य का पूर्ण क्षय जिन्दगी//१०५//

शर्म  से  झुक  रही  जैसे - रति जिन्दगी
भर  रही  पूर्ण   यौवन से  गति जिन्दगी
पुष्प   बनकर  वही  कोमल - सी  कली
खोजती फिर रही  आज  पति  जिन्दगी//१०६//

उत्सवों   की   लड़ी  रोज    है   जिन्दगी
मृत्यु  पर  कर   रह  भोज   है   जिन्दगी
जितना सुलझाओ उतना उलझ जाती है
रहस्यों   से   भरी   खोज    है   जिन्दगी//१०७//

भाव   की   भंगिमा    बोलती   जिन्दगी
नित  खरा   स्वर्ण  ही तोलती   जिन्दगी
मोह ले  जो  हृदय  अपने  दर्शन  से  ही
एेसी   नक्कासियाँ    रोलती    जिन्दगी//१०८//
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