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सोमवार, 8 सितंबर 2014

मित्रो एक नवगीत सादर निवेदित__

सभी पुरानी परिपाटी को भूल रहे हैं 
रिश्ते फांसी के फन्दे में झूल रहे हैं । 
दूर हो रही मानव मन से मानवता
अन्तस्तल में आकर ठहरी दानवता 
अपनों से ही राहो में उग शूल रहे हैं
रिश्ते ......
मिलने पर बातों में अपनापन है दिखता
नहीं किसी का भली बात पर मन है रुकता
अन्दर ही अन्दर में बिष फूल रहे हैं
रिश्ते .......
कही अनकही अनजानी सी बातें लेकर
प्रेम त्याग की बातों को ताखो में देकर
अपनाने को कोई नहीं वसूल रहे हैं
रिश्ते........
साथी बनकर कोई देता नहीं इशारा
उठ जाती है जीवन डोली बिना सहारा
हमराही भी फर्ज आपने भूल रहे हैं
रिश्ते .........।।
जयप्रकाश चतुर्वेदी
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